सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
तस्मा इति॥ सुरा देवाः कुशलस्य संप्रश्नेन व्यञ्जिता प्रकटीकृता प्रीततिर्यस्य तस्मै। लक्षितप्रसादायेत्यर्थः। अन्यथा अनवसरविज्ञप्तिमुखराणामिव निष्फला स्यादिति भावः। तस्मै विष्णवेऽप्रलये प्रलयाभावेऽप्युद्वेलादुन्मर्यादात्। नैर्ऋतो राक्षसः। स एवोदधिः। तस्माद्भयमाचख्युः कथितवन्तः ॥
छन्दः
अनुष्टुप् [८]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ |
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त | स्मै | कु | श | ल | सं | प्र | श्न |
व्य | ञ्जि | त | प्री | त | ये | सु | राः |
भ | य | म | प्र | ल | यो | द्वे | ला |
दा | च | ख्यु | र्नै | रृ | तो | द | धेः |