सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
नम इति॥ पूर्वमादौ विश्वसृजे विश्वस्रष्ट्रे तदनु सर्गानन्तरं विश्वं विभ्रते पुष्णते। अथ विश्वस्य संहर्त्रे। एवं त्रेधा सृष्टि-स्थिति-संहारकर्तृत्वेन स्थित आत्मा स्वरूपं यस्य तस्मै ब्रह्म-विष्णु-हरात्मने तुभ्यं नमः ॥
छन्दः
अनुष्टुप् [८]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ |
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न | मो | वि | श्व | सृ | जे | पू | र्वं |
वि | श्वं | त | द | नु | बि | भ्र | ते |
अ | थ | वि | श्व | स्य | सं | ह | र्त्रे |
तु | भ्यं | त्रे | धा | स्थि | ता | त्म | ने |