वन्ध्योऽफलोऽवकेशी च
इत्यमरः (अमरकोशः २.४.७ ) । आश्रमस्य वृक्षकं वृक्षपोतमिव। पश्यन् कथं न दूयसे न परितप्यसे? विधातः
इत्यनेन समर्थोऽप्युपेक्षस इति गम्यते॥
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त | या | ही | नं | वि | धा | त | र्मां |
क | थं | प | श्य | न्न | दू | य | से |
सि | क्तं | स्व | य | मि | व | स्ने | हा |
द्व | न्ध्य | मा | श्र | म | वृ | क्ष | कम् |