त्यागो विहापितं दानम्
इत्यमरः (अमरकोशः २.७.३१ ) । संभृतार्थानां संचितधनानाम् । न तु दुर्व्यापाराय। सत्यायमितभाषिणां मितभाषणशीलानाम्, न तु पराभवाय। यशसे कीर्तये। यशः कीर्तिः समज्ञा च
इत्यामरः। विजिगीषूणां विजेतुमिच्छूनाम्। न त्वर्थसंग्रहाय। प्रजायै संतानाय गृहमेधिनां दारपरिग्रहाणाम्, न तु कामोपभोगाय। अत्र त्यागाय
इत्यादिषु चतुर्थी तदर्थ-
(अष्टाध्यायी २.१.३६ ) इत्यादिना तादर्थ्ये चतुर्थी। गृहैर्दारैर्मेधन्ते संगच्छन्त इति गृहमेधिनः। दारेष्वपि गृहाः
इत्यमरः (अमरकोशः २.७.३१ ) । जाया च गृहिणी गृहम्
इति हलायुधः। मेधृ संगमे
इति धातोर्णिनिः। एभिर्विशेषणैः परोपकारित्वं सत्यवचनत्वं यसः परत्वं पितॄणां शुद्धत्वं च विवक्षितानि ॥
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त्या | गा | य | सं | भृ | ता | र्था | नां |
स | त्या | य | मि | त | भा | षि | णाम् |
य | श | से | वि | जि | गी | षू | णां |
प्र | जा | यै | गृ | ह | मे | धि | नाम् |