व्रजयजोर्भावे क्यप्
(अष्टाध्यायी ३.३.९८ ) इति क्यप्प्रत्ययः। तया विशुद्धात्मा विशुद्धचेतनः प्रजालोपेन संतत्यभावेन निमीलितः कृतनिमीलनः सोऽहम्। लोक्यत इति लोकः। न लोक्यत इत्यलोकः। लोकश्चालोकश्चात्र स्त इति लोकश्चासावलोकश्चेति वा लोकालोकश्चक्रैवालोऽचल इव। लोकालोकश्चक्रवालः
इत्यमरः (अमरकोशः २.३.२ ) । प्रकाशत इति प्रकाशश्च देवर्णविमोचनात्। न प्रकाशत इत्यप्रकाशश्च पितॄणाविमोचनात्। पचाद्यच्। अस्मीति शेषः। लोकालोकोऽप्यन्तः सूर्यसंपर्काद्बहिस्तमोव्याप्त्या च प्रकाशश्चाप्रकाशश्चेति मन्तव्यम्॥
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सो | ऽह | मि | ज्या | वि | शु | द्धा | त्मा |
प्र | जा | लो | प | नि | मी | लि | तः |
प्र | का | श | श्चा | प्र | का | श | श्च |
लो | का | लो | क | इ | वा | च | लः |