तोरणोऽस्त्री बहिर्द्वारम्
इत्यमरः (अमरकोशः २.२.१७ ) । तत्र या स्रग्विरच्यते तां तोरणस्रजं वितन्वद्भिः। कुर्वद्भिरिवेत्यर्थः। उत्प्रेक्षाव्यञ्जकेवशब्दप्रयोगाभावेऽपि गम्योत्प्रेक्षेयम्। कलनिर्ह्लादैरव्यक्तमधुरध्वनिभिः सारसैः पक्षिविशेषैः करणैः क्वचिदुन्नमिताननौ। सारसो मैथुनी कामी गोनर्दः पुष्कराह्वयः
इति यादवः ॥
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श्रे | णी | ब | न्धा | द्वि | त | न्व | द्भि |
र | स्त | म्भां | तो | र | ण | स्र | जम् |
सा | र | सैः | क | ल | नि | र्ह्रा | दैः |
क्व | चि | दु | न्न | मि | ता | न | नौ |