सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
मृगेति॥ मृगाणां वनं तस्योपगमः प्राप्तिः। तस्य क्षममर्हं वेषां बिभर्तीति स तथोक्तः। मृगयाविहारानुगुणवेषधारीत्यर्थः। विपुलकण्ठे निषक्तशरासनो लग्नधन्वा। ना सवितेव नृसविता पुरुषश्रेष्ठः। उपमितसमासः। स राजाऽश्वखुरोद्धतरेणुभिर्गगनं वितानं तुच्छमसदिवाकरोत्। गगनं नालक्ष्यतेत्यर्थः। वितानं तुच्छमन्दयोः
इति विश्वः। अथवा, -सवितानम्
इत्येकं पदम्। सवितानमुल्लोचसहितमिवाकरोत् । अस्त्री वितानमुल्लोचः
इत्यमरः (अमरकोशः २.६.१२१ ) ॥
छन्दः
द्रुतविलम्बितम् [१२: नभभर]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ |
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मृ | ग | व | नो | प | ग | म | क्ष | म | वे | ष | मृ |
द्वि | पु | ल | क | ण्ठ | नि | ष | क्त | श | रा | स | नः |
ग | ग | न | म | श्व | खु | रो | द्ध | त | रे | णु | भि |
र्नृ | स | वि | ता | स | वि | ता | न | मि | वा | क | रोत् |
न | भ | भ | र |