सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
जालेति॥ अन्या स्त्री जालान्तरप्रेषितदृष्टिर्गवाक्षमध्यप्रेरितदृष्टिः सती प्रस्थानेन गमनेन भिन्नां त्रुटितां नीवीं वसनग्रन्थिम्। नीवी परिपणे ग्रन्थौ स्त्रीणां जघनवाससि
इति विश्वः। न बबन्ध। किंतु नाभिप्रविष्टाभरणानां कङ्कणादीनां प्रभा यस्य तेन। प्रभैव नाभेराभरणमभूदिति भावः। हस्तेन वासोऽवलम्ब्य गृहीत्वा तस्थौ ॥
छन्दः
इन्द्रवज्रा [११: ततजगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
---|
जा | ला | न्त | र | प्रे | षि | त | दृ | ष्टि | र | न्या |
प्र | स्था | न | भि | न्नां | न | ब | ब | न्ध | नी | वीम् |
ना | भि | प्र | वि | ष्टा | भ | र | ण | प्र | भे | ण |
ह | स्ते | न | त | स्था | व | व | ल | म्ब्य | वा | सः |
त | त | ज | ग | ग |