सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
इत इति॥ हे वैदर्भि इन्दुमति! इत इदानीमर्भकहार्यशस्त्रान् बालकापहार्यायुधान् पराञ्शत्रून्पश्य। मयाऽनुमतासि। द्रष्टुमिति शेषः। एभिर्नृपैरेवंविधेन निद्रारूपेणाहवचेष्टितेन रणकर्मणा मम हस्तगता। हस्तगतवद्दुर्ग्रहेत्यर्थः। त्वं प्रार्थ्यसे। अपजिहीर्ष्यस इत्यर्थः। एवंविधेन
इत्यत्र स्वहस्तनिर्देशेन सोपहासमुवाचेति द्रष्टव्यम् ॥
छन्दः
इन्द्रवज्रा [११: ततजगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
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इ | तः | प | रा | र्भ | क | हा | र्य | श | स्त्रा |
न्वै | द | र्भि | प | श्या | नु | म | ता | म | या | सि |
ए | वं | वि | धे | ना | ह | व | चे | ष्टि | ते | न |
त्वं | प्रा | र्थ्य | से | ह | स्त | ग | ता | म | मै | भिः |
त | त | ज | ग | ग |