यावत्तावञ्च साकल्ये
इत्यमरः। तावत्प्रकीर्णा साकल्येन प्रसारिता अभिनवा नूतना उपचाराः पुष्पप्रकरादयो यस्य तं तथोक्तम्। इन्द्रायुधानीव द्योतितानि प्रकाशितानि तोरणान्यङ्काश्चिह्नानि यस्य तम्। ध्वजानां छाया ध्वजच्छायम्, छाया बाहुल्ये
(अष्टाध्यायी २.४.२२ ) इति नपुंसकत्वम्। तेन निवारित उष्ण आतपो यत्र तं तथा राजमार्गं स वरो वोढावध्वा सह प्राप विवेश ॥
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ता | व | त्प्र | की | र्णा | भि | न | वो | प | चा | र |
मि | न्द्रा | यु | ध | द्यो | ति | त | तो | र | णा | ङ्कम् |
व | रः | स | व | ध्वा | स | ह | रा | ज | मा | र्गं |
प्रा | प | ध्व | ज | च्छा | य | नि | वा | रि | तो | ष्णम् |