सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
निर्बन्धेति॥ निर्बन्धेन प्रार्थनातिशयेन संजातरुषा संजातक्रोधेन गुरुणा। अर्थकार्श्यं दारिद्र्यमचिन्तयित्वाऽविचार्य। अहं वित्तस्य धनस्य चतस्रो दश च कोटीश्चतुर्दशकोटीर्मे मह्यमाहरानयेति विद्यापरिसंख्यया विद्यपरिसंख्यानुसारेणैवोक्तः। अत्र मनुः-अङ्गानि वेदाश्चत्वारो मीमांसा न्यायविस्तरः। पुराणं धर्मशास्त्रं च विद्या ह्येताश्चतुर्दश॥
इति ॥
छन्दः
उपजातिः [११]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
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नि | र्ब | न्ध | सं | जा | त | रु | षा | र्थ | का | र्श्य |
म | चि | न्त | यि | त्वा | गु | रु | णा | ह | मु | क्तः |
वि | त्त | स्य | वि | द्या | प | रि | सं | ख्य | या | मे |
को | टी | श्च | त | स्रो | द | श | चा | ह | रे | ति |