सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
अथेति॥ अथ विषयेभ्यो व्यावृत्तात्मा निवृत्तचितः स दिलीपो यथाविधि यथाशास्त्त्रं यूने सूनवे नृपतिककुदं राजचिह्नम्। ककुद्वत्ककुदं श्रेष्ठे वृषाङ्के राजलक्ष्मणि
इति विश्वः। सितातपवारणं श्वेतच्छत्रं दत्त्वा तया देव्या सुदक्षिणया सह मुनिवनतरोश्छायां शिश्रिये श्रितवान्। वानप्रस्थाश्रमं स्वीकृतवानित्यर्थः। तथा हि-गलितवयसां वृद्धानामिक्ष्वाकूणामिक्ष्वाकोर्गोत्रापत्यानाम्। तद्राजसंज्ञकत्वादणो लुक्। इदं वनगमनं कुलव्रतम्। देव्या सह
इत्यनेन सपत्नीकवानप्रस्थाश्रमपक्ष उक्तः। तथा च याज्ञवल्क्यः(प्राय.३।४५)- सुतविन्यस्तपत्नीकस्तया वाऽनुगतो वनम्। वानप्रस्थो ब्रह्मचारी साग्निः सोपासनो व्रजेत्॥
इति। हरिणीवृत्तमेतत्। तदुक्तम्-रसयुगहयैर्न्सौ म्रौ स्लौ गो यदा हरिणी तदा
इति॥
छन्दः
हरिणी [१७: नसमरसलग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ | १३ | १४ | १५ | १६ | १७ |
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अ | थ | स | वि | ष | य | व्या | वृ | त्ता | त्मा | य | था | वि | धि | सू | न | वे |
नृ | प | ति | क | कु | दं | द | त्त्वा | यू | ने | सि | ता | त | प | वा | र | णम् |
मु | नि | व | न | त | रु | च्छा | यां | दे | व्या | त | या | स | ह | शि | श्रि | ये |
ग | लि | त | व | य | सा | मि | क्ष्वा | कू | णा | मि | दं | हि | कु | ल | व्र | तम् |
न | स | म | र | स | ल | ग |