सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
इमामिति॥ किंच स्तनवदभिरामाभ्यां स्तबकाभ्यामभिनम्नां तन्वीमिमां तटाशोकस्य लतां शाखाम् , अतस्त्वत्प्राप्तिबुद्धअया त्वमेव प्राप्तेति भ्रान्त्या परिरब्धुमालिङ्गितुं कामो यस्य सोऽहं सौमित्रिणा लक्ष्मणेन साश्रुर्निषिद्धः नेयं सीतेति निवारितः। परिरब्धुकाम
इत्यत्र तुं काममनसोरपि
इति वचनान्मकारलोपः ॥
छन्दः
इन्द्रवज्रा [११: ततजगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
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इ | मां | त | टा | शो | क | ल | तां | च | त्वीं |
स्त | ना | भि | रा | म | स्त | ब | का | भि | न | म्राम् |
त्व | त्प्रा | प्ति | बु | द्ध्या | प | रि | र | ब्धु | का | मः |
सौ | मि | त्रि | णा | सा | श्रु | र | हं | नि | षि | द्धः |
त | त | ज | ग | ग |