क्रियार्थोपपद-
(अष्टाध्यायी २.३.१४ ) इत्यादिना चतुर्थी। प्रसृता निर्गता महोर्मीणां विस्फूर्जथुरुद्रेकः। ट्वितोऽथुच्
(अष्टाध्यायी ३.३.८९ ) इत्यथुच्प्रत्ययः। तस्मान्निर्विशेषा दुर्ग्रहमेदा एते भुजंगाः सूर्यांशुसंपर्केण समृद्धरागैः प्रवृद्धकान्तिभिः फणस्थैर्मणिभिर्व्यज्यन्त उन्नीयन्ते ॥
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वे | ला | नि | ला | य | प्र | सृ | ता | भु | जं | गा |
व | हो | र्मि | वि | स्फू | र्ज | थु | नि | र्वि | शे | षाः |
सू | र्यां | शु | सं | प | र्क | स | मृ | द्ध | रा | गै |
र्व्य | ज्य | न्त | ए | ते | म | णि | भिः | फ | ण | स्थैः |