शतघ्नी तु चतुस्ताला लोहकण्टकसंचिता। यष्टिः
इति केशवः। हृतां विजयलब्धाम्। वैवस्वतस्यान्तकस्य कूटशाल्मलिमिव। शत्रवे राघवायाक्षिपत् क्षिप्तवान्। कूटशाल्मलिरिव कूटशाल्मलिरिति व्युत्पत्त्या वैवस्वतगदाया गौणी संज्ञा। कूटशाल्मलिर्नामैकमूलप्रकृतिः कण्टकी वृक्षविशेषः। रोचनः कूटशाल्मलिः
इत्यमरः (अमरकोशः २.४.४७ ) । तत्सादृश्यं च गदाया अयःसंङ्कुचितत्वादनुसंधेयम् ॥
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ |
---|---|---|---|---|---|---|---|
अ | यः | श | ङ्कु | चि | तां | र | क्षः |
श | त | घ्नी | म | थ | श | त्र | वे |
हृ | तां | वै | व | स्व | त | स्ये | व |
कृ | टा | शा | ल्म | लि | म | क्षि | पत् |