मत्तवारणयोः
इत्यत्र द्वयोः
इत्यत्र च अन्तरान्तरेण युक्ते
(अष्टाध्यायी २.३.४ ) इति द्वितीया न भवति। अन्तरा
शब्दस्योक्तरीत्याऽन्यत्रान्वयात्। मध्ये कामपि भित्तिं कृत्वा गजौ योधयन्तीति प्रसिद्धिः ॥
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वि | क्र | म | व्य | ति | हा | रे | ण |
सा | मा | न्या | ऽभू | द्द्व | यो | र | पि |
ज | य | श्री | र | न्त | रा | वे | दि |
र्म | त्त | वा | र | ण | यो | रि | व |