प्रत्याङ्भ्यां श्रुवः पूर्वस्य कर्ता
(अष्टाध्यायी १.४.४० ) इति संप्रदानत्वाञ्चतुर्थीं। निशाचरैश्वर्यं राक्षसाधिपत्यं प्रतिशुश्राव प्रतिज्ञातवान्। तथा हि-कालेऽवसरे समारब्धाः प्रकान्ता नीतयः फलं बध्नन्ति गृह्णन्ति। जनयन्तीत्यर्थः। खलु॥
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त | स्मै | नि | शा | च | रै | श्व | र्यं |
प्र | ति | शु | श्रा | व | रा | घ | वः |
का | ले | ख | लु | स | मा | र | ब्धाः |
फ | लं | ब | ध्न | न्ति | नी | त | यः |