सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
ताविति॥ परस्परस्थितावन्योन्याभियुक्तौ। वर्धमानं च परिहीनं चेति द्वन्द्वः। वर्धमानपरिहीने तेजसी ययोस्तावुभौ राघव-भार्गवावपि। दिनात्यये सायंकाले। पर्वणि भवौ पार्वणौ शशि-दिवाकराविव। जनता जनसमूहः। ग्रामजनबन्धुसहायेभ्यस्तल्
(अष्टाध्यायी ४.२.४३ ) इति तल्प्रत्ययः। पश्यति स्मापश्यत्। अत्र राघवस्य शशिना भार्गवस्य भानुनौपम्यं द्रष्टव्यम् ॥
छन्दः
रथोद्धता [११: रनरलग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
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ता | वु | भा | व | पि | प | र | स्प | र | स्थि | तौ |
व | र्ध | मा | न | प | रि | ही | न | ते | ज | सौ |
प | श्य | ति | स्म | ज | न | ता | दि | ना | त्य | ये |
पा | र्व | णौ | श | शि | दि | वा | क | रा | वि | व |
र | न | र | ल | ग |