आख्यातोपयोगे
(अष्टाध्यायी १.४.२९ ) इत्यपादानत्वात्पञ्चमी। तथाविधानुक्तप्रकारान्स्वप्नाञ्छ्रुत्वा प्रीतः सन्। आत्मानं जगद्गुरोर्विष्णोरपि गुरुत्वेन पितृत्वेन हेतुना परार्ध्यं सर्वोत्कृष्टं मेने हि ॥
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ता | भ्य | स्त | था | वि | धा | न्स्व | प्ना |
ञ्छ्रु | त्वा | प्री | तो | हि | पा | र्थि | वः |
मे | ने | प | रा | र्ध्य | मा | त्मा | नं |
गु | रु | त्वे | न | ज | ग | द्गु | रोः |