सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
अनवाप्तमिति॥ अनवाप्तमप्राप्तम्। अवाप्तव्यं प्राप्तव्यं ते तव किंचन किंचिदपि न विद्यते। नित्यपरिपूर्णत्वादिति भावः। तर्हि किंनिबन्धने जन्मकर्मणी तत्राह-लोकेति। एको लोकानुग्रह एव ते तव जन्मकर्मणोर्हेतुः। परमकारुणिकस्य ते परार्थैव प्रवृत्तिः, न स्वार्थेत्यर्थः ॥
छन्दः
अनुष्टुप् [८]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ |
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अ | न | वा | प्त | म | वा | प्त | यं |
न | ते | किं | च | न | वि | द्य | ते |
लो | का | नु | ग्र | ह | ए | वै | को |
हे | तु | स्ते | ज | न्म | क | र्म | णोः |