सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
धर्मलोपेति॥ ऋतुः पुष्पम्। रज इति यावत्। ऋतुः स्त्रीकुसुमेऽपि च
इत्यमरः। ऋतुना निमित्तेन स्नातामिमां राज्ञीं सुदक्षिणां धर्मस्यर्त्वभिगमनलक्षणस्य लोपाद्भ्रंशाद्यद्भयं तस्मात् स्मरन्ध्यायन्। मृदं गां दैवतं विप्रं घृतं मधु चतुष्पथम्। प्रदक्षिणानि कुर्वीत विज्ञातांश्च वनस्पतीन्॥
इति शास्त्रात् प्रदक्षिणक्रियार्हायां प्रदक्षिणकरणयोग्यायां तस्यां धेन्वां त्वं साधु प्रदक्षिणादिसत्कारं नाचरोनाचरितवानसि। व्यासक्ता हि विस्मरन्तीति भावः। ऋतुकालाभिगमने मनुः(३।४५)- ऋतुकालामिगामी स्यात्स्वदारनिरतः सदा
इति। अकरणे दोषमाहपराशरः-(४।१५)ऋतुस्नातां तु यो भार्यां स्वस्थः सन्नोपगच्छति। बालगोघ्नापराधेन विध्यते नात्र संशयः॥
इति ॥
छन्दः
अनुष्टुप् [८]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ |
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ध | र्म | लो | प | भ | या | द्रा | ज्ञी |
मृ | तु | स्ना | ता | मि | मां | स्म | रन् |
प्र | द | क्षि | ण | क्रि | या | र्हा | यां |
त | स्यां | त्वं | सा | धु | ना | च | रः |