सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
दिष्टान्तमिति॥ हे राजन्! भवानप्यन्त्ये वयस्यहमिव पुत्रशोकाह्रिष्टान्तं कालावसानम्। मरणमित्यर्थः। दिष्टः काले च दैवे स्याद्दिष्टम्
इति विश्वः। आप्स्यति प्राप्स्यति। इत्युक्तवन्तम्। आक्रान्तः पादाहतः पूर्वमाक्रान्तपूर्वः। सुप्सुपेति समासः। तम्। प्रथममपकृतमित्यर्थः। मुक्तविषमपकारात्पश्चादुत्मृष्टविषं भुजंगमिव स्थितं तं वृद्धं प्रति प्रथमापराद्धः प्रथमापराधी। कर्तरि क्तः। इदं च सहने कारणमुक्तम्। शापदानात्पश्चादपराधी कोसलपतिर्दशरथः प्रोवाच ॥
छन्दः
वसन्ततिलका [१४: तभजजगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ | १३ | १४ |
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दि | ष्टा | न्त | मा | प्स्य | ति | भ | वा | न | पि | पु | त्र | शो | का |
द | न्त्ये | व | य | स्य | ह | मि | वे | ति | त | मु | क्त | व | न्तम् |
आ | क्रा | न्त | पू | र्व | मि | व | मु | क्त | वि | षं | भु | जं | गं |
प्रो | वा | च | को | स | ल | प | तिः | प्र | थ | मा | प | रा | द्धः |
त | भ | ज | ज | ग | ग |