सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
स इति॥ स नृपः चरुसंज्ञाऽस्य संजाता चरुसंज्ञितम्। वैष्णवं तेजः पत्न्योः कौसल्या-कैकेय्योः। द्योश्च पृथिवी च द्यावा-पृथिव्यौ। दिवसश्च पृथिव्याम्
इति चकारात् दिव्
शब्दस्य द्यावादेशः। तयोर्द्यावापृथिव्योः। अह्नः पतिरहर्पतिः। अहरादीनां पत्यादिषु वा रेफः
(वा.४८१५)इत्युपसंख्यानाद्वैकल्पिको रेफस्य रेफादेशो विसर्गापवादः। प्रत्यग्रमातपं बालातपमिवप। विभेजे। विभज्य ददावित्यर्थः ॥
छन्दः
अनुष्टुप् [८]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ |
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स | ते | जो | वै | ष्ण | वं | प | त्न्यो |
र्वि | भे | जे | च | रु | सं | ज्ञि | तम् |
द्या | वा | पृ | थि | व्योः | प्र | त्य | ग्र |
म | ह | र्प | ति | रि | वा | त | पम् |