सुकर्मपापमन्त्रपुण्येषु कृञः
(अष्टाध्यायी ३.२.८९ ) इति क्विप्। तस्य मन्त्रकृतो मन्त्राणां स्रष्टुः प्रयोक्तुर्वा तव मन्त्रैः कर्तृभिः दृष्टं प्रत्यक्षं यल्लक्ष्यं तन्मात्रं भिन्दन्तीति दृष्टपेषकैरिति निराक्रियन्त इव इत्युत्प्रेक्षा। प्रत्यादेशो निराकृतिः
इत्यमरः (अमरकोशः ३.२.३१ ) । त्वन्मन्त्रसामर्थ्यादेव नः पौरुषं फलतीति भावः ॥
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त | व | म | न्त्र | कृ | तो | म | न्त्रै |
र्दू | रा | त्प्र | श | मि | ता | रि | भिः |
प्र | त्या | दि | श्य | न्त | इ | व | मे |
दृ | ष्ट | ल | क्ष्य | भि | दः | श | राः |